मानव का जनन तंत्र (Reproductive System of Human)
मानव का जनन तंत्र (Reproductive System of Human) :~
जनन :~ जीवों में संतान उत्पन्न करने की प्रक्रिया जनन कहलाती हैं।
इंसान में लैंगिक जनन पाया जाता है नर तथा मादा को बाह्रा लक्षणों के आधार पर पहचाना जाता है जैसे कि नर में शिश्न (Penis) व वृषण कोष पाये जाते है जबकि स्त्रियों में स्तन ग्रंथियां विकसित होती है। नर में ये केवल अवशेषी रूप में होती है
पुरूषों में दाढ़ी मूछ की उपस्थित ,आवाज भारी होना यह लक्षण पुरूषों में पाये जाते हैं।
स्त्रियों में महीन आवाज ,कोमल तथा नितम्बों के क्षेत्र में वसा जमाव के कारण श्रोणि का अधिक विकसित होना यह लक्षण स्त्रियों में पाये जाते हैं।
आदमी का जनन तंत्र (Male Reproductive System) :~
नर जनन तंत्र को दो प्रमुख भागों में बांट सकते है
प्राथमिक जननांग तथा सहायक जननांग।
प्राथमिक जननांग (Gonads) :~ पुरषों में वृृृषण (Testes)प्राथमिक जननांग के अंतर्गत आते हैं।
सहायक जननांग (Accessory reproductive organs) :~
इसमें मुख्यतया वृषण कोष (Scrotal sac) ,अधिवृषण (Epididymis) , शुक्र वाहिनियां (Vas deferens) ,शिश्न (Penis) व प्रॉस्टेट ग्रंथि (prostate glands) एवं काउपर ग्रंथि (Cowper's gland) के रूप में पायें जाते हैं।
1.वृषण (Testes) :~ वयस्क पुरुष में एक जोड़ी , गुलाबी तथा अण्डाकार वृषण ,उदर गुहा के बाहर दोनों टांगों के मध्य कोषों में स्थित होते है। इसकी दीवार लचीली पतली तथा रोम युक्त होती है एवं इसके अंदर अरेखित पेशी तंतुओं का मोटा उपत्वचीय स्तर होता है, जिसे डारटोस पेशी कहते है। प्रत्येक वृषण कोष की गुहा से एक संकरी वक्षण नाल (Inguinal canal) जुड़ी होती है।
वृषण की संरचना एवं कार्य
(Structure and functions of Testes) :~
प्रत्येक वृषण लगभग 4 सेमी मोटा ,2.5 सेमी लम्बा तथा करीबन 10 से 15 ग्राम भार वाली संरचना हैं वृषण पर दो आवरण पाये जाते हैं जिन्हें वृषण खोल से जानते हैं बाहर की तरफ महीन आवरण उसे यौनिक कंचुक (Tunica vaginalis) कहते हैं जो उदरगुहा के उदरावरण से बनता है , जबकि भीतर वाला स्तर श्वेत कंचुक (Tunica albuginea) कहलाता है। प्रत्येक वृषण 250 से 300 पिण्डुको (Lobules) में विभक्त रहता है। पिंडक ऊतक में दो या तीन महीन कुण्डलित शुक्रजनक नलिकाएं होती है। पिंडक ऊतक के अतिरिक्त अंतस्रीवी कोशिकाएं रूधिर कोशिकाएं तथा तंत्रिका तंतु पाये जाते हैं। इसके अलावा संयोजी उत्तक में अंतराली कोशिकाएं (Interstitial cells) या लैंडिंग कोशिकाएं उपस्थित होती है यह नर में टेस्टोस्टेरोन (Testosterone) का स्रावण करती है , इसके कारण पुरुषों में द्वितीयक लैंगिक लक्षणों तथा सहायक जनन ग्रंथियों का विकास होता है।
प्रत्येक शुक्र जनक नलिका के चारों ओर संयोजी ऊतक का बना झिल्लीमय पतला आवरण होता है , जिसे ट्यूनिका प्रोप्रिया कहते है। इसके अंदर जनन उपकला का स्तर पाया जाता है जिसमें दो प्रकार की कोशिकाएं पायी जाती है -
• शुक्राणुजनीय कोशिकाएं (Spermatogonial cells) :~ इनके
शुक्रजनन (Spermatogenesis) द्वारा शुक्राणुओं (Sperms) का निर्माण होता है।
• आलम्बन कोशिकाएं (Supporting cells) :~ इन्हेेेें सर्टोली कोशिकाएं (Sertoli cells)या धात्री कोशिकाएं (Nurse cells) भी कहते है। यह कोशिकाएं संख्या में कम , आकार में बड़ी तथा स्तंभी प्रकार की होती है इनका स्वतंत्र सतह वाला भाग कटा फटा होता है इस भाग में शुक्राणुपूर्व कोशिकाएं सर्टोली कोशिकाओं से सटकर संलग्र रहती है। सर्टोली कोशिकाएं विकासशील जन्म कोशिकाओं को सुरक्षा आलम्बन तथा पोषण प्रदान करने के साथ-साथ शुक्राणुुपूर्व कोशिका के अनावश्यक कोशिकाद्रव्य का विघटन करती हैं। इनके द्वारा शुक्राणु उत्पादन प्रेरित करने वालेे हार्मोन (FSH) की क्रिया का नियमन करने हेतु इन्हिबिन नामक प्रोटीन हॉर्मोन का भी स्रावण किया जाता है।
शुक्रजनक नलिकाएं वृषण की सतह के पास प्रारंभ होकर कम कुण्डलित होते हुए मध्यवर्ती क्षेत्र में पहुंच कर सीधी होकर छोटी-छोटी नलिकाओं के घने जाल में खुल जाती है , जिसे वृषण जालक (Rete testis) इससे लगभग 15 से 20 संवलित नलिकाएं (Convoluted ductules) निकलती है जिसे शुक्रवाहिकायें या अपवाही वाहिनिकाएं (Vasa efferentia) कहते हैं।
यह भी जानें :~
मानव सहित अधिकांश स्तनी जीवों में वृषण उदरगुहा के बाहर वृषण कोष में पाये जाते है क्योंकि शुक्राणुओं का परिपक्वन उदरगुहा में अधिक तापमान के कारण संभव नहीं है। वृषण कोष में शरीर के ताप से लगभग 2 से 2.5 डिग्री सेल्सियस कम होता है जिससे शुक्राणुओं का परिवर्धन सुगमता से संभव हो जाता है।
सर्दियों में वृषण कोषों का ताप कम होने लगता है तो डारटोस पेशियों एवं वृषणोत्कर्ष पेशी सिकुड़कर वृषणकोश को उदरगुहा के अधिक नजदीक ले जाती है जिससे शरीर के ताप के कारण वृषण का ताप नियत बना रहता है।
2.अधिवृषण (Epididymis) :~
यह एक पतली लगभग 6 मीटर लम्बी अत्यधिक कुंडलित चपटी तथा अर्धविराम (Comma) के आकार की नलिका है। इसमें कुण्डल संयोजी ऊतक द्वारा परस्पर चिपके रहते हैं। इसकी दीवार बाहर की तरफ मोटी पेशीय स्तर तथा आंतरिक स्तर स्तरित उपकला द्वारा आस्तरित होता है ,इस नलिका को तीन भागों में बांट दिया गया है -
• शीर्ष अधिवृषण (Caput epididymis) :~ यह भाग चौड़ा तथा वृषण के ऊपरी भाग पर टिका होता है। अपवाही वाहिनिका इस भाग में आकर खुलती है।
• मध्य (Corpus epididymis) :~ यह मध्य व संकरा भाग है जो कि पतला चपटा होता है व वृषण की पश्च सतह तक फैला रहता है।
• पुच्छक अधिवृषण (Cauda epididymis):~
यह अंतिम भाग है जो पतला होता है व वृषण के निचले भाग को ढके रखता है।
3.शुक्रवाहिनी (Vas Deferens) :~
शुक्रवाहिनी लगभग 45 सेमी .लम्बी नलिका होती है। पुच्छक अधिवृषण कम कुण्डलित तथा मोटी नलिका के रुप में सीधी होकर शुक्रवाहिनी की भीतरी सतय कूटस्तरित स्तम्भी उपकला की बनी होती है इसमें कुछ कोशिकाएं विशेष तरल पदार्थ का सराव करती है शुक्रवाहिनी के मार्ग को शुक्राणु के गमन हेतु चिकना बनाता है इसमें दीवार की पेशियों में तरंग गति उत्पन्न होने के कारण शुक्राणु आगे की ओर जाते है। शुक्रवाहिनी अधिवृषण के पश्च भाग से प्रारम्भ होकर ऊपर की ओर वंक्षण नाल से होकर उदर गुहा में मूत्राशय के पश्च तल पर नीचे मुड़कर अंत में एक फूला भाग तुम्बिका बनाती है। यहां शुक्राशय (Seminal vesicle) की छोटी वाहिनी आकर खुलती है दोनों के मिलने से एक स्खलनीय वाहिनी का निर्माण होता है।
तुम्बिका में शुक्राणुओं को स्थाई रूप से संग्रह किया जाता है स्खलनीय वाहिनियां अंत में मूत्र मार्ग (Urethra) में आकर खुलती है।
4.मूत्र मार्ग (Urethra) :~
मूत्राशय से मूत्रवाहिनी निकलकर स्खलनीय वाहिनी से मिलकर मूत्र मार्ग बनाती है। यह लगभग 20 सेंटीमीटर लंबी नाल होती है ,जो शिश्न के शिखर भाग पर मूत्र जनन छिंद्र (Urinogenital aperture ) का निर्माण करता हैन
| नर जनन तंत्र |
5.सहायक जनन ग्रंथियां
(Accessory Reproductive Glands) :~
पुरूषों में तीन प्रकार की सहायक जनन ग्रंथियां पाई जाती है जो कि अपने स्राव मूत्रमार्ग में छोड़ती है यह सभी स्रावी पदार्थ अधिवृषण तथा शुक्राशय द्वारा स्त्रावित पदार्थो एवं शुक्राणुओं में मिलकर शुक्रद्रव या वीर्य (Semen) का निर्माण करते हैं।
नर में सहायक जनन ग्रंथियां निम्न हैं -
• प्रॉस्टेट ग्रंथि (Prostate Glands) :~ यह ग्रंथि मूत्र मार्ग के आधार भाग पर स्थित होती है प्रोस्टेेेट ग्रंथि द्वारा हल्की सफ़ेद क्षारीय तरल पदार्थ का स्रावण किया जाता है जो वीर्य का 25 से 30 प्रतिशत भाग बनाता है। इस तरल में फॉस्फेट ,सिट्रेट (Citrate) ,लाइसोजाइम ,फाइब्रिनोलाइसिन ,स्पर्मिन आदि पदार्थ पाये जाते है। यह शुक्राणुओं को सक्रिय बनाता है एवं वीर्य के स्कदन को रोकता है। अधिक आयु के साथ प्रॉस्टेट का आकार बढ़ जाता है जिससे मूत्र विसर्जन में कठिनाई होती है।
• शुक्राशय (Seminal Vesicles) :~
यह मूत्राशय की सतह एवं मलाशय के बीच में एक जोड़ी थैलीनुमा संरचना है। यह एक पीले से चिपचिपा पदार्थ का स्रावण करने वाली ग्रंथि है। प्रत्येक शुक्राशय से एक छोटी नलिका निकल कर शुक्रवाहिनी की तुम्बिका में खुलती है। शिश्न की उत्तेजित अवस्था में स्खलन के समय दोनों शुक्राशय संकुचित होकर अपने स्राव मुक्त करते हैं। शुक्राशय का स्राव वीर्य का 60% भाग बनाता है। इसमें फ्रक्टोस (Fructose) शर्करा ,प्रोस्टाग्लैंडिन्स तथा प्रोटीन सेमीनोजेलिन होते हैं। फ्रक्टोस का कार्य शुक्राणुओं को ऊर्जा प्रदान करना क्षारीय प्रकृति के कारण यह स्राव योनि मार्ग की अम्लीयता को समाप्त कर शुक्राणुओं की सुरक्षा करता है।
• काउपर की ग्रंथि (Cowper's Gland):~
प्रॉस्टेट ग्रंथि के ठीक नीचे मूत्र मार्ग के दोनों पार्श्वो में एक एक छोटी अण्डाकार ग्रंथिया स्थित होती हैं जिन्हें काउपर की ग्रंथि कहते है।
मैथुन के समय इन ग्रंथियों के द्वारा एक गाढ़ा चिपचिपा तथा क्षारीय पारदर्शी तरल पदार्थ स्रावित किया जाता है जो मूत्र मार्ग को चिकना बनाता है तथा मूत्र मार्ग की अम्लीयता को समाप्त कर उसे उदासीन या हल्का क्षारीय बनाता है। यह तरल मादा योनि को चिकना कर मैथुन क्रिया को सुगम बनाता है।
6.शिश्न (Penis) :~
मनुष्य व अन्य स्तनियों में वृषण कोषों के बीच में उदर से लटका हुआ एक लम्बा , बेलनाकार ,अत्यधिक कोमल मैथुनांग पाया जाता है ,जिसे शिश्न कहते है जो महीन उदरभित्ति द्वारा ढका रहता है।
शिश्न का शिखर भाग फैलकर एक फूले हुए चिकने मुण्ड (Glans penis) का निर्माण करता है। यह केवल कॉर्पस स्पंजियोसम का बना होता है शिशन मुंड को ढकने वाली त्वचा एक टोपी के समान रचना बनाइए है जो शिश्नमुंडछद कहलाती है। यह मैथुन के समय शिशन मुंड के आधार पर वलित हो जाती है।
शिशन की तीन डोरियां होती है इन डोरियों में उपस्थित रक्त कोटर खाली रहती है तथा पेशियां संकुचित रहती हैं। इस समय मूत्र जनन छिद्र द्वारा मूत्र बाहर निकलता है मैथुन के प्रति उत्तेजना होने पर शीशम धमनी से रक्त स्पंजी डोरियों के कोटर में भर जाता है , पेशिया शिथिल हो जाती है और शिशन फूलकर बड़ा एवं कड़ा हो जाता है मुण्ड वाला भाग नग्न हो जाता है। शिश्न का तन खड़ा होना (Erection) शिश्न में रूधिर परिसंचरण पर निर्भर करता है शिश्न मैथुन के समय उत्तेजित अवस्था में योनि में गहराई तक जाता है जिससे मैथुन के समय निकले शुक्राणु गर्भाशय में आसानी से पहुंच सके।
मादा जनन तंत्र (Female Reproductive System) :~
स्त्रियों में एक जोड़ी अंडाशय (Overy) प्राथमिक जननांगों के रूप में होते हैं इनके अतिरिक्त अण्डवाहिनी ,गर्भाशय ,योनि तथा भग जनन ग्रंथियां स्तन ग्रंथियां सहायक जननांगों का कार्य करते हैं।
1.अण्डाशय (Ovary)
स्त्रियों में बादाम की आकृति के दो अण्डाशय उदर गुहा में स्थित होते हैं। प्रत्येक अण्डाशय 1.5 से 3 सेमी तथा 8 मिमी मोटी होती है और वृक्क के पीछे श्रोणि प्रदेश में मध्य अण्डाशयी नामक आंत्रयोजनी द्वारा संलग्र रहता है। अण्डाशय द्वारा अण्डाणुओं की उत्पत्ति तथा मादा हॉर्मोन एस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्टेरोन का स्रावण किया जाता है।
आंतरिक संरचना के आधार पर अण्डाशय एक सघन तथा ठोस अंग है जो वल्कुट तथा मध्यांश में विभक्त रहता है।
वल्कुटीय क्षेत्र के स्ट्रोमा में प्रत्यास्थ तंतु , अरेखित पेशी तंतु , रुधिर वाहिनीयां तथा परिपक्वता की विभिन्न अवस्थाओं में अनेक गोलाकार अण्डाशयी या ग्राफीयन पुटिकाएं पायी जाती है। पुटक कोशिकाओं में विभाजन के द्वारा अंडाशय पुटक आकार में वृद्धि करता है इन कोशिकाओं में से एक कोशिका शीघ्रता से आकार में वृद्धि कर अण्डाणु का निर्माण करती है। बाकी कोशिकाएं पुटक कोशिकाएं कहलाती है। परिपक्व पुटक ग्राफीयन पुटक कहलाता है। अण्ड कोशिका के बाहर की तरफ एक पारदर्शी एवं पतला स्तर जोना पैल्युसिडा (Zona pellucida) बन जाता है जिसके बाहर स्तम्भी कोशिकाएं कोरोना रेडिएटा (Corona radiata) स्तर बनाती है।
2.अण्डवाहिनी (Oviduct)
प्रत्येक अंडाशय से लगभग 12 सेंटीमीटर लंबी कीप नुमा एवं कुंडली पेशीय नलिका निकलती है जिसे डिंबवाहिनी नली या अण्डवाहिनी अथवा गर्भाशयी नलिका कहते हैं। यह अण्डाशय से गर्भाशय तक फैली होती है इसका अग्र भाग अण्डाशय से लगा होता है जिसे इंफन्डीबुलम या कीपक कहलाता है क्योंकि कीपनुमा होता है।
इसके किनारों पर अंगुलियों के समान अनेक झालरदार प्रवर्ध होते हैं जिन्हें झालर कहते हैं कीप का छिन्द्रनुमा मुख अॉस्टियम कहलाता है।
इसकी श्लेष्मलीय उपकला की स्रावी कोशिकाओं
द्वारा गाढ़े लसलसे द्रव्य की पतली परत का स्रावण किया जाता है जो अण्डाणु को पोषण देने के साथ सुरक्षा प्रदान करता है। अण्डवाहिनी का अंतिम सिरा गर्भाशय में खुलता है अण्डाशय द्वारा मुक्त अण्डाणु झालर के द्वारा अण्डवाहिनी में प्रवेश कर जाते हैं।
3.गर्भाशय (Uterus)
यह खोखला अंग है जो नाशपाती के आकार का होता है तीन मजबूत स्रायु (Ligaments) इसे श्रोणि में साधे रहते है। इसका आकार 7.5x50x2.5 सेमी होता है। इसमें दोनों तरफ की अण्डवाहिनियां आकर खुलती हैं गर्भाशय का ऊपरी भाग अपेक्षाकृत चौड़ा एवं तिकोनी गुहा युक्त होता है , जिसे काय (Body) कहते है तथा इसका निचला भाग संकीर्ण भाग गर्भाशय ग्रीवा कहलाता है यह एक बाह्रा द्वार द्वारा योनि में खुलता है। निषेचन के बाद निर्मित भ्रूण अपरा द्वारा गर्भाशय की दीवार से ही संलग्र रहता है जहां इसे सुरक्षा के साथ पोषण प्रदान करने का कार्य करता है।
4.योनी (Vagina)
गर्भाशय ग्रीवा उभर कर एक लचीली पेशीय नलिका रूपी रचना बनाती है जिसे योनि कहते है। योनि की भित्ति कोशिकाएं ग्लाइकोजन का संचय करती है।
योनि में उपस्थित लैक्टोबैसीलाई जीवाणुओं की किण्वन क्रिया द्वारा योनि में उपस्थित श्लेष्म (Mucous) अम्लीय हो जाता है। जो संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करता है योनि द्वार एक पतली झिल्ली द्वारा आंशिक रूप से बंद रहता है , जिसे योनिच्छद (Hymen) कहते हैं। यह ज्यादा शारीरिक परिश्रम , लैंगिक सम्पर्क तथा व्यायाम के कारण फट जाती है। योनि ह स्त्रियों में मैथुनांग की तरह कार्य करने की अतिरिक्त गर्भाशय से उत्पन्न मासिक स्राव को निष्कासन पथ उपलब्ध कराती है तथा शिशु जन्म के समय गर्भस्थ शिशु को बाहर निकलने के लिए जन्मनाल की तरह कार्य करती है।
5.भग (Vulva)
स्त्रियों के सभी बाह्रा जननांगों को सम्मिलित रूप में भग कहा जाता है। इसकी निम्न संरचनाएं ~
• प्यूबिस मुंड (Mons pubis) ~ ये त्वचा से ढका एवं उभरा हुआ वसीय ऊतक युक्त भाग है जो कि प्यूबिस सिम्फाइसिस के ऊपर स्थित होता है।
• वृहद्भगोष्ठ (Labia Majora) ~ ये प्यूबिस मुंड से नीचे की ओर व पीछे की तरफ एक जोड़ी अनुदैर्ध्य वलन तथा इनकी बाद्म सतह पर रोम पायेे जाते हैं।
• लघुभगोष्ठ (Labia Minora) ~ ये वृहद्भभगोष्ठो के बीच में उपस्थित एक जोड़ी छोटे वलन होते हैं जो कि यह प्रघाण को घेेेरे रहते हैं।
• भगशेफ (Clitoris) ~ यह प्यूबिस मुंड के नीचे व लघुुभगोष्ठों के अग्र कोने पर स्थित एक्स वेदी अंग है जो नर के शिश्न का समजात होता है।
• प्रघाण (Vestibule) ~ लघुुभगोष्ठों के मध्य में स्थित एक दरार रूपी स्थान को प्रघाण कहते हैं इसमें मूत्र मार्ग एवं योनि अपने संगत द्वारा (Orifices) खुलते है। मूत्र मार्ग का द्वार (Urinary orifice or meatus) भगशेफ के ठीक नीचे एक छोटे छिद्र के रूप में होता है। इस द्वार के नीचे योनि द्वार (Orifice of vagina) स्थित होता है।
• वृहत् प्रघाण ग्रंथियां (Greater Vestibular Glands) ~ योनि द्वार के दोनों तरफ एक -एक सेम की आकृति (Bean shaped) की ग्रंथि वृृृहदभगोष्ठ पर स्थित होती है यह ग्रंथियां एक द्रव का स्राव करती है जो कि भग भाग को नम रखता है तथा लैंगिक परस्पर व्यवहार (Sexual intercourse) को सुगम बनाता है।
6.स्तन या छाती (Breast) ~
स्तन स्त्री जनन तंत्र के सहायक अंगों का कार्य करती है मादा में स्तन ग्रंथियां युक्त एक जोड़ी स्तन उपस्थित होते है। प्रत्येक स्तन ग्रंथि में भीतर का संयोजी ऊतक 15 से 20 नलिकाकार कोष्ठकीय पालियों का बना होता है। इसके बीच में वसीय ऊतक होता है। प्रत्येक पालियों में अंगूर के गुच्छे के समान दुग्ध ग्रंथियां होती है ,जो दूध का स्राव करती है यह दूध शिशु के पोषण का कार्य करता है। स्तन ग्रंथियों की वृद्धि एवं कार्य का नियंत्रण सोमैटोट्रोपिन ,प्रोलेक्टिन ,ऐस्ट्रोजन ,प्रोजेस्टरोन तथा आक्सीजन आदि ओर हार्मोनों द्वारा होता है।
मानव में यौवनारंभ के लक्षण
(Onset of puberty in man) :~
मानव में नर एवं मादा अपरिपक्व जनन अंगों का परिपक्व होकर जनन क्षमता का विकास होना इसे ही यौवनारंभ (Puberty) कहलाता है।
क्या आपको पता है कि नर की तुलना में मादा में यौवनारंभ पहले प्रारंभ होता है। नर में यौवनारंभ 14 से 16 वर्ष की आयु में वृषणों की सक्रियता से तथा शुक्राणु बनने के साथ शुरू होता है जबकि मादा में 12 से 14 वर्ष की आयु में स्तन ग्रंथियों की वृद्धि एवं रजोदर्शन (Menarche) के साथ शुरू होता है।
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