मानव में संवेदी अंग ; ज्ञानेन्द्रियां (Sensory Organs of Human ;Sense Organs)

        जीवविज्ञान {जूलोजी} सरल नोट्स

मानव के संवेदी अंग; ज्ञानेन्द्रियां

(Sensory Oragans of Human ;Sense Organs) ~


संवेदी अंग ~  

सभी संवेदनाओं को ग्रहण करने वाले अंग संवेदी अंग कहलाते हैं।

संवेदी अंग शरीर में पाए जाने वाले वे अंग जिनके माध्यम से मानव का शरीर बाह्रा पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। संवेदी अंगों को ज्ञानेन्द्रियां कहते हैं। शरीर में महसूस दृष्टि , ध्वनि, गंध , स्वाद आदि के बारे में मनुष्य में पाई जाने वाली पांच प्रकार की ज्ञानेंद्रियां जानकारी उपलब्ध कराती  हैं।
जैसे कि प्यास लगना ,भूख लगना , मीठा लगना , कुत्ते की आवाज सुनाई देना ,ठंड ,गर्मी  का अनुभव करना आदि आदि सूचनाओं को तंत्रिका तंत्र के माध्यम से मस्तिष्क या मेरुरज्जु तक भेज  देती है मस्तिष्क आवेगो को अलग-अलग वर्गीकृत कर देता है उनकी व्याख्या करता है और वंचित अनुक्रिया के लिए भेज देता है।

मानव में संवेदी अंग एवं इन्द्रियों के प्रकार ~ 


मानव में संवेदी अंग एवं ज्ञन्द्रियां पांच प्रकार की होती है -

  1. दर्शनेन्द्रियां    -     आंख      -    देखकर
  2. श्रवणेन्द्रियां   -      कान      -    सुनकर
  3. स्पर्शेन्द्रियां    -      त्वचा      -    छूकर
  4. स्वादेन्द्रियां    -      जीभ      -   चखकर
  5. घ्राणेन्द्रियां    -      नाक       -    सूंघकर     

    दर्शनेन्द्रियां - नेत्र ~

मनुष्य में एक जोड़ी नेत्र पाए जाते हैं। जो संवेदी अंग के रूप में संवेदनाओं को ग्रहण कर दृष्टिज्ञान करवाते हैं।



नेत्र आकृति में गोलाकार होते हैं। ये सामने की तरफ से जरा -सा उभरे हुए और अस्थिल कोटर के भीतर मुक्त रूप से घूम सकते हैं। नेत्र एक खोखली गेंद की तरह होते हैं जिसके अंदर कई संरचनाएं होती हैं।

नेत्र की आंतरिक रचना :-

नेत्र गोलक की भित्ति के अंदर तीन परतें पाई जाती हैं उनके नाम ~ श्वेतपटल (स्कलेरा) ,रक्त पटल (कोरॉइड) , दृष्टि पटल (रेटिना )


1.श्वेत पटल या स्क्लेरा (Sclera) : ~      

यह सबसे बाहरी सफेद परत होती है। यह दो भागों से निर्मित होती है। यह सामने की तरफ से पारदर्शी स्वच्छमंडल भाग कॉर्निया से जुड़ी होती हैं। कॉर्निया का आकार वक्राकार होने के कारण यह प्रकाश की किरणों को संकेंद्रित करता है।


2.कोरॉइड (Choroid) : ~

यह बीच की परत है इसका निर्माण योजी ऊतक द्वारा होता है जिसमें रूधिर वाहिनियों का सघन जालक विद्यमान होता है। इसकी भीतरी सतह में रंग कणिकाएं नीली ,गहरी भूरी या काली होती है।यह प्रकाश का परावर्तन होने ही नहीं देती जिससे प्रतिबिंब की स्पष्टता खराब नहीं होती हैं।

3.दृष्टि पटल (Retina) :~

यह सबसे भीतरी संवेदी परत होती है। रेटिना में संवेदी कोशिकाएं जो दो प्रकार की होती हैं -

शलाकाएं (Rods; धीमे प्रकाश के लिए संवेदी होती हैं। 
शंकु (Cones; यह रंगों के लिए संवेदी होती हैं।अर्थात रंगों की यह पहचान करती हैं।

शलाकाओं की संख्या शंकुओं से अधिक होती है शलाकाओं में दृष्टि रंजक वर्णक रोडोप्सिन पाया जाता है जो विटामिन ए से निर्मित होता है इसका कार्य जंतु को मंद प्रकाश में देखने में सहायता प्रदान करता है। उल्लू के रेटीना में केवल शलाकायें पाई जाती हैं।

करता आप जानते हैं कि मनुष्य के नेत्र में 115 मिलियन शलाकायें तथा 16.2 मिलियन शंकु होते हैं। इस कारण प्रकाश में भेद देखने में समर्थ होते हैं शंकुओं में आयडोप्सिन पाया जाता है ,जो कि जंतुओं को विभिन्न रंगों को पृथक पृथक पहचानने में मदद करता है शंकु तीव्र प्रकाश में देखने तथा विभिन्न रंगों को देखने में सहायक होते हैं। मुर्गी में शुद्ध शंकु वाला रेटीना पाया जाता है।

 पीत बिन्दु (Yellow spot) ~

वह स्थान है जहां सामान्य आंख में सबसे अच्छा दिखाई देता है जिसमें संवेदी कोशिकाएं और उनमें भी विशेषकर शंकु कोशिकाएं सर्वाधिक संख्या में पाई जाती है शेष रेटीना में शलाकाएं अधिक तथा शंकु कोशिकाएं कम होती हैं। यह भाग पीला दिखाई देता है अतः इसे पीत बिन्दु या मैकूला लुटिया भी कहते हैं। इसके बीच में एक मध्यवर्ती गर्त होता है जिसे फोविया सेन्टरेलिस कहते हैं। इसमें केवल शंकु कोशिकाएं होती है अतः यह नेत्र का सबसे संवेदी भाग का निर्माण करता है।

अंध बिन्दु (Blind spot) ~

पीत बिन्दु के ठीक नीचे अंध बिन्दु होता है। यह वह स्थान है जहां पर रेटिना की समस्त संवेदी कोशिकाओं से आने वाले तंत्रिका तंत्र एक साथ इकट्ठे होकर दृकतंत्रिका तंत्र बनाते हैं यहीं से एक तंत्रिका नेत्र गोलक से बाहर की ओर निकलती है अंध बिंदु पर शंकु तथा शलाका दोनों अनुपस्थित कहती है अतः यह प्रतिबिंब निर्माण में कोई भाग नहीं लेता है।


नेत्र के भाग :~

आंतरिक रूप से नेत्र दो प्रमुख पक्षों में बंटा होता है यह दोनों कक्ष लेंस के जरिए एक दूसरे से अलग अलग बने रहते हैं।

• तरल कक्ष :-

यह पहला भाग होता है जिसके भीतर एक जलीय तरल (नेत्रोद ,Aqueous humour) भरा होता है तथा एक पिछला भाग जिसके भीतर गाढ़ा काचाभ पदार्थ (काचाभ ह्मूमर ) भरा होता है। ऐक्वअस ह्मूमर लेंस को नम बनाए रखता है और उसे शारीरिक झटकों से बचाता है। काचाभ पदार्थ नेत्र गोलक की आकृति को बनाए रखता है और रेटिना की सुरक्षा करता है।

• लेंस (Lens):-

यह परिचारिका के ठीक पीछे स्थित होता है यह आकृति में उभयोत्तल और अर्धठोस होता है। यह मुलायम जिलेटिन उत्तक का बना होता है यह निलंबन स्रायु (Suspensory ligament) से अपनी स्थिति में बना रहता है जो लेंस को पेशीय पक्ष्माभ काय (Ciliary body) से जोड़े रखता है।

• परितारिका (Iris) :~

यह लेंस के सामने एक प्रकार का पर्दा होता है। यह काला ,भूरा या नीला हो सकता है नेत्र का रंग इसी आइरिस के रंग कारण होता है।

इसमें दो प्रकार की पेशियां होती हैं ~

* वर्तुल पेशियां ~ पुतली को संकरा बनाने के लिए।
* अरीय पेशियां ~ पुतली को फ़ैलाने के लिए।

प्रत्येक नेत्र गोलक को कोटर में घुमाने के लिए 6 प्रकार के कंकाल पेशियां पाई जाती है इनमें से चार ऋजु (Rectus) एवं दो तिरछी पेशियां होती हैं जो इस प्रकार है ~

  1. बाह्म ऋजु पेशियां     
  2. अन्त: ऋजु पेशियां   
  3. उत्तर ऋजु पेशियां
  4. अंधों ऋजु पेशियां
  5. उत्तर तिरछी पेशियां
  6. अंधों तिरछी पेशियां                           
इन पेशियों की सहायता से आंख दांय-बांये व ऊपर नीचे चलायमान होती है तथा जरूरत के अनुसार कार्य करती है।

          प्लीका सेमील्यूनेरिस :~~

मनुष्य के नेत्र के भीतर कोण पर स्थित अवशेषी निकटेटिंग झिल्ली को प्लीका सेमील्यूनेरिस कहते हैं।

नेत्र ग्रंथियां (Eye glands):-

नेत्र में तीन तरह की ग्रंथियां होती हैं।

• मीबोमियन ग्रंथियां :~  यह ग्रंथियां दोनोंंं पलकों के किनारों पर पाई जाती हैं तथा तेलीय पदार्थ निकालती हैैं , जिससे कार्निया चिकनी रहती है। जिससे पलकों को उठाने एवं गिराने में अवरोध नहीं होता है।

• मॉल की ग्रंथी :- इन्हें सिलियरी ग्रंथि भी कहते है ,यह पसीने की ग्रंथि से रूपांतरित होकर पलकोंं के किनारों पर बरोनियों के पास फॉलिकिल में खुलती हैं।

• लेक्राइन ग्रंथि या अश्रु ग्रंथियां (Lacrymal glands) :~  दोनों आंख केेे ऊपरी पलक के किनारे 3 अश्रु ग्रंथियां पाई जाती है इनसे नमकीन द्रव स्रावित होता है जो पलकों एवं कॉर्निया को नम रखता है तथा आंखोंोंोंो की सफाई भी करने का कार्य करता है।

      नेत्र की कार्य विधि :~ 

नेत्र की संरचना को इस प्रकार समझ सकते हैं।

• प्रकाश का संप्रेषण :~  वस्तु से परावर्तित प्रकाश किरणे पारदर्शी संरचनाओं में से होकर आंख में आती है यानी नेत्र श्लेेष्मला (Conjunctiva) , स्वच्छमंडल (Cornea) नेत्रोद ,लेंस तथा काचाभ तरल तरल में से होकर।    

प्रतिबिंब का बनना :~ कॉर्निया की वक्रता से किरण कुछ हद तक मुड़ जाती है और लेंस उन्हें ज्यादा मोड़ देते है जिससे एक प्रतिबिंब रेटिना के ऊपर बन जाता है।

• प्रतिबिंब का स्वरूप :~ प्रतिबिंब उल्टा एवंं वास्तविक होता हैै।

• तंत्रिका - आवेग का बनना और उसका संप्रेषण :~ प्रकाश उर्जा , संवेगी कोशिकाओं (शलाकाओं तथा शंकुओं) में रासायनिक परिवर्तन पैदा करती हैं। इन परिवर्तनों से तंत्रिका आवेग बनते हैं जो दृक तंत्रिका में से चलते हुए मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते हैं।

• अनुभूति :-  हमारा मस्तिष्क प्रतिबिंब को अनेक प्रकार से समझता और उसका अर्थ निकलता है। जिससे कि वह वस्तु को सीधा देखता है जबकि रेटिना पर बनने वाला प्रतिबिंब उल्टा होता है।

समंजन (फोकसन Focusing) :~  रेटिना पर प्रतिबिंब के फोकस किए जाने को फोकसन कहते है।

- दूर दृष्टि के लिए :~  लेंं लेंस अधिक चपटा या पतला हो जाता है यह लेंस की सामान्य स्थिति होती है जिसे निलंबन स्रायुओं द्वारा तान कर रखा जाता है।

- निकट दृष्टि के लिए :~  पक्ष्माभ पेशियां जो वर्तुल आकार की होती हैं जो संकुचित होकर नेत्र गोलक की परिधि को कम कर देती हैं। इससे निलंबन स्रायु पर खिंचाव कम हो जाता है और लेंस स्वयं अपनी प्रत्यास्थता के कारण मोटा अधिक गोल हो जाता है।

सामान्य आंख सतत समंजन करती रहती है चाहे कोई चल रहा हो ,खेल रहा हो या केवल इधर -उधर देख ही रहा हो।

- द्विनेत्री दृष्टि :~ मानव सहित सभी प्राइमेट स्तनियों में दोनों आंख सामने की ओर स्थित होती है हम सब जानते हैं। इस व्यवस्था में प्रतिबिंबों का एक - दूसरे के ऊपर आ जाना होता है जिससे गहराई का बोध होता है अर्थात त्रिविमीय दृष्टि कह सकते हैं।

दृष्टि ज्ञान की जैव रासायनिकी :~ 

मानव शरीर में दृष्टि ज्ञान हेतु शलाकाओं एवं शंकुओं में जैव रासायनिक परिवर्तन होता है रेटिना की शलाकाओं में रोडॉप्सिन उपस्थित रहता है। यह अत्यधिक प्रकाश संवेदी होता है इसे दृक बैंगनी कहते हैं। यह प्रकाश की उपस्थिति में बदल जाता है जिससे यह टूटकर ल्यूमीरोडोप्सिन बनाता हैं फिर यह मेटारोडोप्सिन में बदल जाता हैं जो कि अंत में एक प्रोटीन स्कोटोप्सीन और रेटिनीन में बदल जाता हैं। अंधेरे में फिर स्कोटोप्सिन और रेटीनीन से रोडोप्सिन बन जाता है।

रेटिनीन विटामिन ए का व्यत्पन्न है। स्वस्थ आंखों के लिए विटामिन ए अत्यधिक आवश्यक होता है विटामिन ए की कमी से रोडोप्सिन का निर्माण नहीं हो पाता है , इससे कम प्रकाश में दिखाई नहीं देता है इस रोग को रतौंधी (Night blindness) कहते हैैं।

शंकुओं मैं एक अन्य रंगीन पदार्थ आयोडॉप्सिन पाया जाता है यह किसी भी वस्तु के रंग का वेद करवाता है प्राथमिक रंग लाल , हरा वह नीले रंग के लिए अलग-अलग प्रकार के शंकु पाए जाते हैं जो इन रंगों का वेद करवाते हैं लाल रंग के लिए इरिथ्रोलैब ,हरे रंग के लिए क्लोरोलैब एवं नीले के लिए साइनोलैब रंगा पाए  जाते हैं।

नेत्र के सामान्य रोग :~

~ निकट दृष्टि (Myopia) :-   

इसमें व्यक्ति कम दूरी की वस्तुओं को तो साफ-साफ देख लेता है मगर दूर की चीजों को ठीक से नहीं देख पाता दूर की वस्तुओं का प्रतिबिंब दृष्टि पटल के आगे बनता है।

रोग को ठीक कैसे करे :~

यह रोग अवतल लेंस के द्वारा ठीक कर सकते है इन्ह लेंस या चश्में के फ्रेम में लगाए जा सकते हैं या कॉन्टेक्ट लेंसों की तरह इस्तेमाल किए जा सकते है।)

~ दूर दृष्टि (Hypermetropia) :-

इस रोग वाले व्यक्ति को दूर की वस्तुओं को तो साफ साफ देख लेते हैं ,लेकिन नजदीक की वस्तुओं को नहीं देख पाते इस दोष में निकट की वस्तुओं का प्रतिबिंब दृष्टि पटेल के पीछे बनता है इसका उपाय उत्तल लेंस के इस्तेमाल से किया जाता है।

* मोतियाबिंंद (Cataract)  :~ 

इस रोग में सामान्यतः उम्र बढ़ने के साथ-साथ लेंस सफेद अपारदर्शी हो जाता है।

• उपाय :-  इस प्रकार के लेंस को शल्य क्रिया द्वारा निकाल दिया जाता है और उसकी जगह पर एक अंत :नेत्री लेंस लगा दिया जाता है या फिर चश्मा भी लगवा दिया जाता हैं।

* दृष्टिवैश्म (Astigmatism) :~

इसमें कॉर्निया की आकृति असामान्य हो जाती है। यह बेलनाकार लैंस के द्वारा यह रोग ठीक किया जाता हैं। 

* कंजक्टीवाइटिस (Conjunctivitis) :-

सूक्ष्मजीवों के संक्रमण द्वारा कंजक्टीवा में सूजन आ जाती हैं। इसको आंख का आना रोग कहते हैं

* वर्णांधता (Colourblindness) :~

यह रोग आनुवांशिक होता है। यह रोग आंखों में शंकु कोशिकाओं की कमी से होता है जिससे वह व्यक्ति लाल व हरे रंग में अंतर नहीं कर पाते हैं।

    कर्ण श्रवण और संतुलन का संवेदांग 



कर्ण यानि कान जो दो तरह से संवेदी के रूप में कार्य करता है - • पहला कार्य सुनने का 
• दूसरा  संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है।

कान को तीन भागों में बांटा गया है - 
1.बाह्म कर्ण  2.मध्य कर्ण  3.अंत:कर्ण 

1.बाह्रा कर्ण (External ear) :~

बाह्म कर्ण दो भागों से मिलकर बना है ~

(क) कर्ण पल्लव (Pinna or Auricle) :-

यह केवल स्तनधारियों में पाया जाता है। यह फायब्रो इलास्टिक उपास्थि से बने होते हैं। मनुष्य में यह अचलायमान होता है क्योंकि इनमें अॉरिकुलर पेशियां अवशेषी होती हैं। इसमें एक गुहा होती है। जिसे कोचा (Concha) कहते है। कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को एकत्रित करता है और बाह्म कर्ण कूहर में भेजता है।

(ख) बाह्म कर्ण कूहर (External auditory meatus) :~

कोचा एक संकरी नली में खुलती है जिसे बाह्म कर्ण कूहर कहते हैं जो कि कर्ण पटल झिल्ली तक विस्तारित होती है। इस कर्ण कूहर पर स्वेद ग्रंथियां सेरुमिन ग्रंथियों में रुपांतरित हो जाती है जो सेरुमिन या कर्ण मोम स्त्रावित करती हैं।

2.मध्य कर्ण (Middle ear)

स्तनधारियों में मध्य कर्ण टिम्पेनिक बुल्ला में बंद रहता है मध्य कर्ण की गुहा टिम्पेनिक गुहा कहलाती है। कर्ण गुहा ग्रसनी से एक संकरी नली जिसे फेरिंगों टिम्पेनिक नली से जुड़ी रहती है। यूस्टेचियन नलिका का कार्य कर्ण पटल झिल्ली के दोनों ओर समान दाब बनाए रखना होता है।

~ कर्ण अस्थिकाऐं :- स्तनधारियों की कर्ण गुहा में तीन कर्ण अस्थिकाऐं पायी जाती हैं। जो बाहर से अंदर की ओर एक दूसरे से सिर जुड़ी होती है।

मेलियस (Malleus ) :-

यह हथोड़े के आकार की कर्ण अस्थि है जो आर्टीकुलर अस्थि के रूपांतरण से बनती है।

• इन्कस (Incus) :-

यह निहाई के आकार की होती है जो क्वाड्रेट अस्थि के रूपांतरण से बनती है।

• स्टेपीज (Stapes) :-

यह घोड़े के जीन की रकाब के आकार की होती है जो हायोमेन्डीबुलर अस्थि के रूपांतरण से बनती है।


3.आंतरिक कर्ण (Inernal ear ) :~

यह टेम्पोरल की गुहा में स्थित होता है जिसे अस्थि गहन (Bony labyrinth) कहते है , इसके दो भाग -

(क) कर्णावर्त (Cochlea) :~ यह एक लंबी कुंडलित संरचना होती है जो कुछ -कुछ शंख की कुंडली की तरह होती है इसके कुल ढाई चक्र बने होते हैं।

(ख) प्रघाण (Vestibule) :~ इसका संबंध शरीर का संतुलन बनाए रखने में होता है। इसमें तीन अर्ध वृत्ताकार नालें पाई जाती हैं।


 सुनने की क्रियाविधि :~ 

  • कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को एकत्रित करता है जहां से यह करण कूहर में प्रवेश करती है और कर्ण पटल झिल्ली में कंपन पैदा करती है।
  • उसके बाद यह कंपनी मेलियस ,इन्कस ,स्टेपीज फेनेक्ट्रा ओवेसिस द्वारा अंतःकर्ण में पहुंचते हैं।
  • यह कंपन कर्णावर्त के भीतर के तरल को गति प्रदान करते हैं। इस तरल की गति को कॉर्टी अंग पकड़ लेते हैं तथा तंत्रिका आवेगो के रूप में कोकलिया तंत्रिकाओं में पहुंचा देते हैं जो यह तंत्रिकाएं आवेगों को मस्तिष्क तक पहुंचा देती हैं।

देह संतुलन का बोध - स्थैतिक संतुलन (गुरुत्व के कारण) :~


शरीर की उर्ध्व स्थिति में या फिर झुकते समय अर्धवृत्ताकार नालें के भीतर तरल गति करता है यह अर्धवृत्ताकार नाले विभिन्न समतलों में व्यवस्थित होती हैं नाल की तुंबिका में स्थित संवेदी पक्ष्माभ इन गतियों को ग्रहण कर लेते हैं और तब आवेग श्रवण - तंत्रिका तक पहुंचा दिए जाते हैं जहां से वे मस्तिष्क को भेज दिए जाते हैं।

गति करते समय संतुलन :~

दृति (यूट्रिकुलस) और गोणिका (सैकुलस) गतिज संतुलन का अनुभव करते हैं जबकि शरीर गति कर रहा होता है जब भी शरीर में किस प्रकार की गति हो रही होती है ,तब अंतर्लसीका में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट की बारीक - बारीक कणिकाएं संवेदी रोमों को दबाने लगती हैं। इस प्रकार आवेगो को स्राव तंत्रिका तक पहुंचा दिया जाता हैं।

जिव्हा और नाक जो स्वाद और गंध के संवेदांग :~

जिव्हा के द्वारा स्वाद का बोध होता है एवं नाक के द्वारा गंध का बोध होता है ये दोनों प्रकार के संवेद रासायनिक संवेद होते हैं और ये सम्पर्क में आने वाले जो आने वाले। रासायनिक पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर होते हैं। स्वाद का संवेद जिव्हा के द्वारा पता लगाया जाता है इसका पता पदार्थ का सीधे संवेदी स्वाद कलिकाओं जो कि जिव्हा पर पाई जाती है इसके सम्पर्क में आने से होता है।

गंध का पता नाक की संवेदी एपिथेलियम पर रसायन के संपर्क में आने से चलता है। जब रसायन के अणु हवा द्वारा सांस के साथ भीतर आते हैं तो वे नाक की संवेदी एपिथीलियम को उद्दीपित कर देती है जिससे गंध का बोध होता है।

त्वचा स्पर्श तथा कुछ अन्य कई संवेदांग :~

त्वचा में अनेक प्रकार की तंत्रिकाओं के अंतिम छोर उपस्थित होते हैं। इन तंत्रिकाओं के द्वारा विभिन्न प्रकार की स्पर्श का बोध होता है इनमें से कुछ तंत्रिकाओं का संबंध स्पर्श यानी हल्का सा स्पर्श से होता है एवं उच्च तंत्रिकाओं का संबंध गहरे दाब से और अन्यों का ठंड ,ताप और पीड़ा से होता है।

भूख का संवेद आमाशय की भित्ति में स्थित ग्राही अंगों से होता हैं और प्यास का संवेद ग्रसनी में स्थित तंत्रिकाओं के उद्दीपित होने के कारण होता है। थकान का संवेद पेशियों में स्थित होता है।

Comments

Popular posts from this blog

मानव के पाचन तंत्र की क्रिया विधि क्या है हिंदी में(Mechanism of Digestive system of human )

मनुष्य में होने वाले भ्रूणीय परिवर्धन (Embryonic Development in Human)

मानव का श्वसन तंत्र ( Respriatory system of human)