मानव के उत्सर्जन तंत्र की क्रियाविधि(mechanism of human excretory system

 जीवविज्ञान {जूलोजी} सरल नोट्स

 ~मानव का उत्सर्जन तंत्र~

~उत्सर्जन तथा मूत्र निर्माण की क्रियाविधि~


यकृत कोशिकाओं में बने यूरिया को रूधिर द्वारा वृक्कों में लाया जाता है। यकृत से यूरिया युक्त रूधिर यकृत शिरा पश्च महाशिरा में डाल दिया जाता है। पश्च महाशिरा से यूरिया को रूधिर से पृथक किया जाता है , जिसे मूत्र निर्माण कहते हैं।

मूत्र निर्माण की क्रियाविधि निम्न चरणों में पूर्ण होती हैं -

1. परानिस्यंदन (Ultrafilteration)
2. वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective                reabsorption
3.स्रावण (Secretion)

1. परानिस्यन्दन (Ultrafilteration) -


बोमन सम्पुट वृक्क नलिका में एक सूक्ष्म छलनी की भांति कार्य करता है इसमें अभिवाही धमनिका यूरिया युक्त रूधिर लाती है और अपवाही धमनिका इससे रूधिर बाहर ले जाती है।

चित्र - नेफ्रोन के विभिन्न भागों द्वारा प्रमुख पदार्थों का पुनरावशोषण एवं स्रवण 

केशिका गुच्छ की कोशिका भित्ति में लगभग 0.1 Um व्यास के असंख्य छिद्र होते हैं, जिससे छिद्रित झिल्ली की पारगम्यता सामान्यत: रूधिर केशिकाओं की तुलना में 100 से 1000 गुना अधिक होती है। प्लाज्मा में घुले पदार्थ इन छिद्रों में से छनकर निकल सकते है। केशिका गुच्छ में आने वाली अभिवाही धमनिका ,अपवाही धमनिका की तुलना में अधिक व्यास की होती है इसी कारण इसमें रुधिर तेज गति से आता है लेकिन बाहर जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा सकता है स्वस्थ मनुष्य में केशिका गुच्छ में आने वाले रुधिर का दाब (GHP ग्लोमेरूलर हाइड्रो स्टेटिक दाब) अधिक (70mm Hg) होता है। केशिका गुच्छ में रूधिर केशिकाऐं, रूधिर प्रोटीन 
रूधिर घुलित कोलायडी नहीं छन पाते हैं।
कोलायडी पदार्थ रुधिर में एक विपरीत 30mm Hg रक्त कोलायडी परासरणी दाब (BCop)उत्पन्न करते हैं। बोमन सम्पुट ही गुहा में उपस्थित निस्यंद द्वारा भी लगभग 20mm Hg का दाब उत्पन्न किया जाता है जिसे सम्पुटीय द्रव स्थैतिक दाब कहते हैं। इस प्रकार ग्लोमेरूलर तरल पर लगभग 20mm Hg (70 GHP - 30BCop-20CHP) का शुद्ध प्रभावी निस्यंदन दाब कार्य करता है जिससे तरल प्लाज्मा उत्सर्जी पदार्थ बोमन संपुट की गुहा में आते रहते हैं।

केशिका गुच्छ से छना हुआ प्लाज्मा ग्लोमेरूलर निस्यंद कहलाता है। यह तरल बोमन संपुट की गुहा में आ जाता है केशिका गुच्छ की रूधिर कोशिकाओं से उत्सर्जी तथा अन्य उपयोगी पदार्थों का छनकर बोमन संपुट की गुहा में जाने की क्रिया परानिस्यंदन कहलाती है।

2. वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective reabsorption)-


परानिस्यंदन क्रिया से उत्पन्न ग्लोमेरूलर निस्यंद में यूरिया ,यूरिक अम्ल ,क्रियेटिनिन आदि उत्सर्जी पदार्थ के साथ ग्लूकोज ,ऐमीनो अम्ल , कुछ वसीय अम्ल विटामिन जल तथा अन्य उपयोगी लवण भी होते हैं। निस्यंद में रूधिर के जल का लगभग 95%भाग छनकर आ जाता है , किंतु इसका लगभग 0.8% भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर  बाहर निकलता है इसमें पाए जाने वाले लाभदायक पदार्थों जैसे ग्लूकोस विटामिन अमीनो अम्ल आदि का वृक्क नलिकाओं द्वारा रुधिर में पुनरावशोषण कर दिया जाता है। वृक्क नलिकाओं से लाभदायक पदार्थों का पुनः रूधिर में पहुचना वरणात्मक पुनः अवशोषण कहलाता है।
वृक्क नलिका के विभिन्न भागों में पुनरावशोषण इस प्रकार होता है -




समीपस्थ कुण्डलित नलिका में                     पुनरावशोषण -

इसकी आंतरिक भित्ति पर अनेक सूक्ष्मांकुर पाते जाते है जिससे पुनः अवशोषण की क्षमता 20 गुना बढ़ जाती है। इस भाग में उपकला कोशिकाओं द्वारा निस्यंद में से अधिकतर लाभदायक पदार्थों का पुनः अवशोषण कर केशिका गुच्छ के रूधिर में छोड़ दिया जाता है ग्लूकोस (glucose), विटामिन, एमिनो अम्ल, अकार्बनिक लवण जैसे कैल्शियम सोडियम, पोटेशियम, फोस्फेट पुनः अवशोषित होकर रूधिर में सक्रिय अभिगमन द्वारा गमन कर जाते है। उस समय ATP के रूप में ऊर्जा का उपयोग किया जाता है जल रूधिर में परासरण द्वारा पहुंचता है।  60-80% पदार्थों का पुनः अवशोषण हो जाता है। वृक्क द्वारा पदार्थों का पुनः अवशोषण उनके वृक्कीय देहली मान के अनुसार होता है।

वृक्कीय देहली मान किसी पदार्थ की रूधिर में वह अधिकतम सान्द्रता है उच्च देहली पदार्थों जिसमें से (ग्लूकोज ,एमिनो अम्ल का पूर्ण अवशोषण) जिस पर वह पूर्णतः ग्लोमेरुलर निस्यंद से अवशोषित हो जाता है निम्न देहली पदार्थों (जल, खनिज लवण आदि) का कम मात्रा में अवशोषण एवं देहली पदार्थों जिसमें से (यूरिया ,यूरिक अम्ल, क्रियेटिनिन सल्फेट आदि) का बिल्कुल अवशोषण नहीं होता है।

हेनले के लूप में पुनरावशोषण - हेनले के लूप के विभिन्न भागों में पुनरावशोषण क्रिया इस प्रकार होती है -

(अ) अवरोही भुजा में पुनरावशोषण -    
 
निस्यंद का शेष भाग लगभग 35% अवरोही भुजा में पहुंचता है। अवरोही भुजा में रूधिर प्लाज्मा एवं निस्यंद की परासरणीयता बराबर होती है। सोडियम, पोटेशियम तथा क्लोराइड के कारण समपरासरणीयता होती है। इस भुजा की पतली भित्ति यूरिया सोडियम तथा अन्य आयनों के लिए कम पारगम्य तथा जल के लिए अधिक पारगम्य होती है। यहां निस्यंद अतिपरासरणी हो जाता है।

(ब) आरोही भुजा में पुनरावशोषण -

अवरोही भुजा से निस्यंद आरोही भुजा के महीन खंड में पहुंचता है। इसकी भित्ति सोडियम क्लोराइड आयनों के लिए पारगम्य तथा जल के लिए अपारगम्य होती है। यहां निस्यंद से अकार्बनिक लवणों के आयन (सोडियम व क्लोराइड) सामान्य विसरण द्वारा बाहर निकल जाते है। यहां निस्यंद समपरासरणी हो जाता है।

आरोही भुजा के मोटे खंड की भित्ति जल , यूरिया तथा अन्य विलेयों के लिए अपारगम्य होती है। इसमें सोडियम ,पोटेशियम तथा क्लोराइड आयन सक्रिय अभिगमन द्वारा निस्यंद से वृक्क मैड्यूला के ऊतक द्रव में पहुंचकर सामान्य विसरण द्वारा रुधिर में चले जाते हैं जिससे  निस्यंद अल्प परासरणी हो जाता है।


(स) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण -


इस नलिका में सोडियम व क्लोराइड का पुनः अवशोषण जारी रहता है इस नलिका में जल्द रक्त की तुलना में समपरासरणी होता है। यहां जल का लगभग 19% भाग अवशोषित होता है।

(द) संग्रह नलिका में पुनरावशोषण -

इस भाग द्वारा निस्यंद से जल के अणु का पुनः अवशोषण किया जाता है जिससे निस्यंद अतिपरासरणी हो जाता है। संग्रह नलिका के अग्र भाग की भित्ति जल के अणुओं के लिए पारगम्य होती है। संग्रह नलिका का अंतिम भाग यूरिया के लिए कुछ पारगम्य होता है जिससे यूरिया बाहर निकलकर मेड्यूलरी ऊतक द्रव की परासरणता को बढाता है। 

3.स्रावण (Secretion) -

रूधिर से कुछ हानिकारक उत्सर्जी पदार्थ जैसे - रंगा पदार्थ ,कुछ औषधियां , यूरिक अम्ल ,हिपूरिक अम्ल आदि  परानिस्यंदय के समय ग्लोमेरूलर निस्यंद में नहीं छन पाते हैं। हेनले के लूप तथा समीपस्थ व दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं की उपकला कोशिकाऐं इन अपशिष्ट पदार्थों को सक्रिय अभिगमन द्वारा वृक्क नलिकाओं की गुहा में मुक्त करती रहती है ,इस प्रक्रिया को नलिकीय स्रावण कहते है।


   ~ मनुष्य के अन्य उत्सर्जी अंग ~

(Other Excretory organs in Human) -

1.त्वचा (Skin) -

 मानव के शरीर में पसीनेे के साथ अतिरिक्त जल एवं कुछ नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों को मानव की त्वचा में स्थित स्वेद ग्रंथियों केेे माध्यम सेे शरीर से बाहर निष्कासित किया जाता है।

2.फेफड़े (Lungs) -

कोशिकीय श्वसन के फलस्वरूप बनी कार्लसन डाइऑक्साइड उत्सर्जी पदार्थ है। इसकों श्वसन क्रिया द्वारा बाहर उत्सर्जित किया जाता है।

3.यकृत (Liver) -

यकृत की कोशिकाऐं शरीर में आवश्यकता से अधिक एमीनों अम्लों में नाइट्रोजनी भाग को अमोनिया में तथा अमोनिया को कम हानिकारक यूरिया में परिवर्तित कर मूत्र के रूप में बाहर त्याग करने में सहायक होती है पित्त वर्णकों  का निर्माण भी यकृत द्वारा किया जाता है।

         ~ उत्सर्जन संबंधी रोग~

(Disorders Related to Excretion)

मानव में उत्सर्जन क्रिया संबंधित रोग उत्पन्न हो जाते हैं जो ऐसे रोग निम्न हैं -

1.यूरेमिया (Uremia) -

जब रक्त में यूरिया की मात्रा 10 से 30 mg/100 ml से अधिक हो जाती है तो यह अवस्था यूरेमिया कहलाती है। रुधिर में ज्यादा यूरिया के संग्रह से रोगी की मृत्यु हो जाती है।

2.गॉउट (Gout) -

यह एक आनुवंशिक रोग है जिसमें रुधिर में यूरिक अम्ल की मात्रा अधिक हो जाती है जो कि संधियों तथा वृक्क ऊतकों में जमा हो जाता है। यह रोग निर्जलीकरण , उपवास व डाईयूरेटिक से बढ़ता है।

3.वृक्क पथरी (Kidney stones) -

सामान्यतः वृक्क श्रोणि में यूरिक अम्ल के क्रिस्टल कैल्शियम के आक्सेलेट , फास्फेट लवण इत्यादि पथरी का रूप ले लेते है।

4. ब्राइट का रोग या नेफ्रिटिस -

यह रोग ग्लोमेरूलस (केशिका गुच्छ ) में स्ट्रेप्टोकोकाई जीवाणु के संक्रमण से उत्पन्न होता है। इसके कारण ग्लोमेरूलस में सूजन आ जाती है तथा इसकी झिल्लियां अत्यधिक पारगम्य हो जाने से रक्ताणु व प्रोटीन भी छनकर निस्यंद में आ जाते है।
नेफ्रिटिस का इलाज नहीं होने पर ऊतकों में तरल जमा हो जाने से टॉगे फूल जाती है इसे एडीमा या ड्रोप्सी कहते है।

5.ग्लाइकोसूरिया (Glycosuria) -

मूत्र में शर्करा की उपस्थिति व उत्सर्जन ग्लाइकोसूरिया कहलाता है। यह रोग इंसुलिन हार्मोन की कमी से होता है ,इस रोग अवस्था को डाइबिटीज मैलिटस कहलाती है।

6.डिसयूरिया (Disurea) -

मूत्र त्याग के समय दर्द की अवस्था को डिसयूरिया कहते है।

7.पोलीयूरिया (Poly urea) - 

यह नेफ्रोन के द्वारा जल का पुनः अवशोषण न हो पाने से मूत्र का आयतन बढ़ने की अवस्था है, जिसे बहुमूत्रता कहते हैं।

8.सिस्टिटिस (Cystitis) -

इसमें जीवाणु के संक्रमण , रासायनिक या यांत्रिक
क्षति के कारण मूत्राशय में सूजन आ जाती है।

9.डायबिटीज इन्सिपिडस (Diabetes Insipidus) 

इस रोग से पीड़ित में ऐन्टी डाईयूरेटिअ हॉर्मोन के अल्पस्रावण के कारण दूरस्थ कुण्डलित नलिका व संग्रह नलिका में जल का अवशोषण नहीं हो पता है इससे मूत्र का आयतन बढ़ने के कारण रोगी को बार-बार अधिक मात्रा में मूत्र का त्याग करना पड़ता है।

10.ओलीगोयूरिया (Oligourea) -

इस रोग से ग्रस्त रोगी में मूत्र की मात्रा सामान्य से बहुत कम बनती है।

11.प्रोटीन्यूरिया (Proteinurea) -

मूत्र में प्रोटीन की मात्रा सामान्य से अधिक होना ही प्रोटीन्यूरिया कहलाता है।

12.एल्ब्यूमिनयूरिया (Albuminurea) -

इस रोग से ग्रस्त रोगी के मूत्र में एल्बयूमिन प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।

13.कीटोन्यूरिया (Ketonurea) -

मूत्र में कीटोनकाय जैसे की ऐसीटो ऐसीटिक अम्ल आदि की मात्रा का बढ़ना कीटोन्यूरिया कहलाता है।

14.हीमेटोयूरिया (Haematourea) -

मूत्र के साथ लाल रूधिर कणिकाओं का बाहर निष्कासित होना ही हीमेटोयूरिया कहलाता है।

15.हीमोग्लोबिन यूरिया (Haemoglobinurea) Disorder -

मूत्र में हीमोग्लोबिन की उपस्थिति हीमोग्लोबिन यूरिया कहलाती है।

16.पाइयूरिया (Pyurea) -

मूत्र में मवाद कोशिकाओं का पाया जाना पाइयूरिया कहलाता है।

17.पीलिया (Jaundice) -

मूत्र में  पित्त वर्णकों का अत्यधिक मात्रा में पाया जाना पीलिया कहलाता है। यह प्राय:हिपेटाइटिस या पित्त नलिका में रुकावट के समय दिखाई देता है।

18.एल्केप्टोन्यूरिया (Alcaptonurea) -

मूत्र में एल्केप्टोन या होमोजेन्टीसिक अम्ल का पाया जाना एल्केप्टोन्यूरिया कहलाता है। जब एल्केप्टोन वायु के संपर्क में आता है तो मूत्र काले रंग का दिखाई देता है। इसे कृष्ण मूत्र रोग (Black urine disease) के नाम से भी जाना जाता है।

     

    रूधिर अपोहन (Haemodialysis) -


वृक्क जब अपना कार्य करना बंद कर देते हैं रक्त में यूरिया की मात्रा बढ़ जाती है इस अवस्था को यूरेमिया कहते हैं। यूरिया व अन्य अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए कृत्रिम वृक्कीय उपकरण की आवश्यकता पड़ती है अतः इस प्रक्रिया को रक्त अपोहन कहां जाता है।

रूधिर अपोहन क्रियाविधि -

इस प्रक्रिया में सबसे पहले रोगी के शरीर की किसी एक मुख्य धमनी में रक्त निकालकर 0°C तक ठण्डा करके इसमें हिपेरिन नामक प्रतिस्कंदक मिलाकर उसके बाद इस मिश्रण को सेलोफेन झिल्ली द्वारा आवरित बहुत सी  नलिकाओं से निर्मित कृत्रिम वृक्क में डाल दिया जाता है यह कृत्रिम वृक्क बहुत सी नलिकाओं से निर्मित होता है यह झिल्ली प्रोटीन के बड़े  अणुओं के लिए अपारगम्य होती है और यूरिया ,यूरिक अम्ल ,क्रियेटिनिन तथा खनिज आयनों के लिए न पारगम्य होती है इन झिल्लियों केमध्य द्रव भरा होता हैजिसे अपोहनी द्रव कहते हैं झिल्लीयों द्वारा नाइट्रोजन युक्त अपशिष्ट पदार्थों को रूधिर से निकालकर अपोहनी द्रव में डाल देती है इसमें प्लाजमा प्रोटीन के अणु का हृास नहीं होता है।यह क्रिया जिसमें नलिकाओं के अंदर बहते रूधिर से उत्सर्जी पदार्थों से मुक्त हो जाता है , अपोहन कहलाता है।

इस क्रिया के बाद कृत्रिम वृक्क से रूधिर को निकालकर हल्का गर्म शरीर के तापमान के अनुसार कर उसमें एन्टीहिपैरिन मिलाकर रोगी की शिरा में वापस प्रवेश कराया जाता है। रूधिर अपोहन द्वारा यूरेमिया से ग्रसित व्यक्ति के जीवनकाल को बढ़ाया जा सकता है। 

वृक्क प्रत्यारोपण (Kidney           Transplantation) -


जब रोगी मनुष्य में वृक्क पूरी तरह कार्य करना बंद कर देते हैं तो उन्हें उपचारित नहीं किया जा सकता है और उसके स्थान पर दूसरे स्वस्थ व्यक्ति के वृक्क लगाये जाते हैं। इस वृक्क परिवर्तन करने की प्रक्रिया को वृक्क प्रत्यारोपण कहते हैं।
वृक्क देने वाले व्यक्ति को वृक्कदाता कहते हैं।
वृक्क दान करने वाला व्यक्ति रोगी का संबंधी होना चाहिए क्योंकि दोनों सम्बंधियों के रक्त वाहिकाओं ऊतकीय संरचना लगभग समान होती है। 

यदि अनजाने से भी अनजान व्यक्ति का वृक्क लगा दिया जाता है तो रोगी का रोग प्रतिरोधक तंत्र इस नये वृक्क को अस्वीकार कर सकता है। ऐसे में नया वृक्क अपना कार्य नहीं कर पाता है और रोगी की मृत्यु हो सकती है।
इससे बचने के लिए औषधियों द्वारा प्रतिरक्षी तंत्र को निष्क्रिय कर दिया जाता है जिससे रोगी व्यक्ति के शरीर द्वारा प्रत्यारोपित वृक्क को स्वीकार किये जाने की संभावना बढ़ जाती है। 

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